Diya Jethwani

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लेखनी प्रतियोगिता -04-Feb-2024....... रिश्तों का ताना बाना

क्या बात हैं.... दिन चढ़ रहा हैं आप अभी भी बालकनी में ऐसे बैठे हैं...!! तबियत तो ठीक हैं ना आपकी...? 

आंखें मूंदे अमरसिंह अपनी पत्नी की बात सुनी अनसुनी कर आंखें मूंद बैठे रहें...। 
पत्नी ने फिर से पूछा तो चिढ़कर बोले :- कुछ नहीं.... सब ठीक हैं....। 

आवाज में थोड़ा रोष और उग्रता सुन स्मृति वापस भीतर जाकर अपने काम में लग गई....। मन ही मन विचार करने लगी....खुद भी तो जिद्द पर अड़े हैं.... अरे बच्चे हैं.... हमारे ही तो हैं.... खुद ही सामने से बोल सकते हैं ना...! हर बार बच्चे आतें हैं ओर इतना काम साथ लेकर आतें हैं.... बेचारे भूल जाते होंगे.... पर खुद भी तो बोल सकते हैं ना.... मुझे भी कसम देकर रोक रखा हैं वरना मैं ही बात निकाल दूं...। 
मन में बड़बड़ाते हुए वो घर के सभी काम निपटाती रहीं...। 


(अमरसिंह के दो बेटे थे...। बड़ा बेटा विकास लव मैरिज कर दिल्ली में सेटल था... वहीं रहता था...। अमरसिंह ने उनके रिश्ते को कभी मंजूरी नही दी... इसलिए विकास उनसे सभी रिश्ते तोड़कर अपनी पत्नी के साथ वही रहता था...। छोटे बेटे  विजय ने अपने पेरेंट्स की मर्जी से शादी की थीं... लेकिन शादी के बाद वो भी अमेरिका में पत्नी के साथ सेटल हो गया था...। साल में एक बार विजय अपनी पत्नी के साथ अपने पेरेंट्स से मिलने आता था...। 15 - 20 दिन रुकता ओर फिर चला जाता...। अमरसिंह एक रिटायर बाबु थे...। पेंशन से उनका खर्च पानी चल रहा था...। लेकिन अमरसिंह अपने उसूलों के पक्के थे...। विजय  शादी के बाद शुरुआत में अपने पिता से ओर माँ से कहते थे की " एक बार आप रिटायर हो जाओ.... फिर आप दोनों को भी साथ ले चलूंगा...। " 
लेकिन अभी अमरसिंह को रिटायर हुए चार साल हो गए थे... लेकिन विजय ने कभी उनसे साथ चलने को नहीं कहा..। इस बार भी ऐसा ही हुआ...। विजय वापस जा चुका था... बिना अपने पेरेंट्स को लिए...। 
शायद यहीं बात उनको खटक रहीं थीं... इसलिए सवेरे से बालकनी में बैठे थे..। ) 

कुछ देर सोच विचार कर स्मृति फिर से अमरसिंह के पास गई ओर कहा:- अब छोड़िये भी जिद्द....आप ही कह दिजिए ना .....विजय को ......अगली बार आए तो सारा इंतजाम करके आए...। हमें साथ ले जाने का...। कितना सुशील बेटा हैं हमारा.... ओर बहू... वो तो साक्षात लक्ष्मी हैं जी...। हर बार आतीं हैं तो सारा काम खुद करने लग जाती हैं... मुझे तो किचन में जाने ही नहीं देतीं... कितनी सेवा करतीं हैं हमारी... वो तो खुश हो जाएगी... अगर हम हमेशा के लिए उसके साथ चलेंगे तो...। 


एक तरफ़ स्मृति बेटे और बहू की तारीफों के पूल बांध रहीं थीं.... वहीं अमरसिंह अपने ही ख्यालों में गुम थे.... अमरसिंह मन ही मन बोले..... तुझे क्या बताऊँ... वो खुश हैं या खुश होने का दिखावा कर रहें हैं..। अगर कल रात को मैंने उनकी बातें ना सुनी होतीं तो मैं भी तुम्हारी ही तरह उनके गुणगान कर रहा होता..। पर मैंने खुद अपने कानों से सुना जब हमारी बहू कह रहीं थीं..... " सुनो विजय.... प्लीज भूलकर भी कभी मम्मी पापा को साथ चलने को मत कहना... कुछ दिनों का ड्रामा तो ठीक हैं... मैं हमेशा के लिए उनके कहे अनुसार नहीं चल सकतीं... कितने नाटक हैं आपके पेरेंट्स के...। 
अरे मैं खुद भी कितनी मुश्किल से ये दिन निकालता हूँ मुझे पता... ये लोग अभी भी मुझे बच्चा ही समझते हैं...। अमेरिका में रहता हूँ... वो भी परिवार के साथ... क्या मुझमें इतनी अक्ल नहीं होगी... हर बात पर पापा का ज्ञान... मेरा भी सिर दुखता हैं...। इसलिए तो बड़े भाई रिश्ता तोड़ कर चले गए...। ये तो शुक्र मनाओ की मैं फिर भी इतना पैसा खर्च करके हर बार आ रहा हूँ... वहां ले जाकर अपना सिर थोड़ी मुंदवाना है...। तुम फिक्र मत करो डियर.... मैं अच्छे से जानता हूँ... पापा के उसूल.. उनको जब तक मैं ना बोलूं... वो कभी साथ नहीं चलेंगे...ओर मैं कभी बोलूंगा ही नहीं...। तुम अपनी पैंकिग कर लो...। "


अमरसिंह ने जो रात को सुना उसके बाद उन्हें अपने बेटे ओर बहू पर बहुत अधिक क्रोध था... वो रात भर भीतर ही भीतर घुट रहें थे.. पर सवेरे उनके जातें वक्त उनके सिर पर हाथ रखकर हमेशा खुश होने का आशीर्वाद देकर बिना कुछ बोले विदा किया और तबसे बालकनी में बैठे बार बार उसी पर विचार कर रहें थे...। वो चाहकर भी स्मृति से कुछ कह नहीं सकते थे... क्योंकि उनको पता था स्मृति ये बात शायद बर्दाश्त ना कर पाएं...। 


वक्त बीतता गया ओर ये बात अमरसिंह को भीतर ही भीतर खाने लगी...। उनका स्वास्थ्य भी बिगड़ने लगा था..ओर वो स्वभाव से बहुत अधिक चिड़चिड़े भी हो गए थे...। ना अपनी पत्नी से ठीक से बात करते थे.... ना अपने दोस्तों से..। धीरे धीरे उनको एकांत ने घेर लिया था...। 
एक रोज स्मृति के बहुत कहने पर अमरसिंह उसके साथ गंगा घाट पर दर्शन करने के लिए कार से चल दिए...। 
आधे रास्ते पहुंचे ही थे की उनकी कार खर्र खर्र की आवाज के साथ एक वीराने में बंद हो गई...। 
अमरसिंह कार पर अपना गुस्सा निकालते हुए.. भगवान को भला बुरा कहते हुए ...कार से बाहर आए....। आसपास मदद के लिए नजरें घुमा रहें थे..। 

तभी स्मृति बोलीं :- सुनिए जी... वो दूर पेड़ के नीचे शायद कोई दुकान हैं... टिनशेड लगे हुए हैं... चलिए वहां चलकर देखते हैं...। 

इस वीराने में दुकान.. तुम्हारे अब्बा ने आकर खोली होगी...। ऐसे ही लगे होंगे ...। छोड़ो.... तुमसे क्या बहस करना...। 
अमरसिंह अपनी पत्नी पर झल्लाकर बोले :- सब तुम्हारी ही मेहरबानी हैं...। जिद्द पकड़कर रख दी हैं.... जाना हैं.... जाना हैं...। अब जाओ...। 

गुस्सा छोड़िये... एक बार चलकर देखते हैं ना शायद कोई मदद मिल जाए...। 

आखिर कार अमरसिंह उस तरफ़ ना चाहते हुए भी चल पड़ा...। वहां जाकर देखा तो वहां एक बुढ़िया.... जिसकी कमर आधी झूकी हुई थीं... चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ी हुई थीं.... बाल बिल्कुल सफेद....। एक साड़ी जैसे तैसे शरीर पर लपेटे हुए....गर्मागर्म भजिए बना रहीं थीं...। साथ में चाय बनाने का सामान भी था..। 

उन दोनों के वहां पहुंचते ही बुढ़िया बोलीं :- आइये साहब....आराम से यहां बैठिये... पेड़ की ठंडी हवा का मज़ा लिजिए...। क्या लेंगे आप दोनों...। 


भूख तो उन दोनों को भी लगी थीं पर अमरसिंह अपने स्वभाव वश कुछ नहीं बोला बस ऊपरवाले को दोष देता हुआ खुद की किस्मत को कोसे जा रहा था..। 

लेकिन स्मृति बोलीं :- मां जी.... गर्मागर्म भजिए और चाय...। 

ठीक हैं बेटा...। 
ऐसा कहकर वो चाय बनाने लगी...। तभी पेड़ से एक चिड़िया आई... उसे देखकर बुढ़िया बोलीं.... आ गई तु लाडो... क्यूँ आज फिर अकेली आई हैं... तेरा लाडेसर कहाँ हैं... आज फिर से लड़कर आई हैं क्या...। 
फिर वो खिलखिलाकर बोलीं.... कब तक ऐसे ही लड़ते रहोगे..। थोड़ी देर में वहां पेड़ के नीचे बिखरे अनाज के दानों को खाने कुछ गिलहरियाँ भी नीचे आई..। आती फिर वापस जाती... फिर कुछ देर बाद आती... ये सिलसिला चलता ही जा रहा था...। थोड़ी देर में एक चिड़ा भी आ गया...। 
बुढ़िया हंसते हुए स्मृति को चाय ओर भजिए देते हुए बोलीं... लो आ गया...। इसको भी कहां चैन मिलने वाला हैं..। 


बुढ़िया की ये सारी बातें सुन अमरसिंह बोला :- क्या अम्मा.... खुद से ही बातें कर रहीं हो क्या...! 

अरे नहीं बेटा... ये सब हैं ना... ये सब मेरे बच्चे हैं...। रोज आतें हैं मुझ बुढ़िया का हाल देखने..। 

मन बहलाने के लिए बातें अच्छी हैं.. पर सच तो सच हैं ना... इस वीराने में... अकेले कैसे रहतीं हो...! 

अकेले कहाँ हूँ बेटा... पूरा दिन तुम जैसे कुछ राहगीर आतें जातें रहते हैं... कभी कभी पास वाले गाँव से भी लोग आतें रहते हैं..। ओर दिन भर इन पक्षियों की चहचहाट... गिलहरियों का कलरव लगा रहता हैं..... रात को चैन की नींद सो जाती हूँ..। 

तुम्हारे आगे पीछे कोई नहीं हैं...! 

हैं ना... बेटे हैं... बेटियां हैं... नाती हैं... पोते पोतियां  हैं... भरा पूरा कुनबा हैं मेरा.. लेकिन सब अपनी अपनी गृहस्थी में खुश हैं...। मैं ठहरी बुढ़ी... उनके साथ रहूंगी तो अपने मुताबिक काम करवाऊंगी... वो उनको पसंद नहीं आएगा... फिर लड़ाई झगड़े... क्लेश...इससे तो बेहतर हैं ......। वो वहां खुश रहें ओर मैं यहां..। मुझे कोई अफसोस नहीं हैं.. उनकी खुशी में तो मेरी खुशी हैं..।
 मेरा सबसे बड़ा लड़का तो आर्मी में था... शहीद हो गया... कुछ साल पहले...। मेरा आदमी भी बहुत साल पहले चल बसा....वो भी फौज में था....।  ऊपरवाले ने सब कुछ तो दिया हैं.... फिर क्यूँ शिकायत करूँ...। खाने को दो वक्त की रोटी... आप जैसे लोगो से मिलना मिलाना और ये मेरी लाडो (चिड़िया की तरफ़ इशारा करते हुए) ..... ये तो हैं ही.... अभी देखो ना साहब...दो दिन पहले ही तो लाडो ने अपने बच्चों को उड़ना सिखाया था...। दूर आसमान में लेकर जाती थी.... आज देखो... फूर्र हो गए ना उसके बच्चे...। उड़ना सीखते ही चले गए.... इन दोनों को छोड़कर.... तो क्या ये दाना खाने नहीं आई...!! 
अरे साहब ये ही तो जिंदगी हैं... ये ही तो नियति का खेल हैं.....सब कुछ यहीं छोड़ जाना हैं... पर फिर भी पता नहीं क्यूँ इंसान....पैसे के लिए, अपनों के लिए रोता रहता हैं...। पता नहीं क्यूँ इस मोह माया में फंसा रहता हैं....। 


बुढ़िया की कही एक एक बात अमरसिंह को झकझोर रहीं थीं... उसे ऐसा लग रहा था... जैसे बुढ़िया उसके बारे में सब जानती हैं ओर उसको ही तंज कस रही हैं..। 


लेकिन फिर भी इस विराने में.... आपको कभी डर नहीं लगता...! 


डर... डर किस बात का...।  डर तो उसे होता हैं जिसके पास कुछ खो जाने का भय हो....।मेरे पास ऐसा कुछ है ही नहीं...।मैं मोह माया से निकल चुकी हूँ साहब....। ऊपरवाले ने इतना सब कुछ दिया हैं तो उसकी हर रज़ा में राजी़ रहती हूँ ...। वैसे साहब... आप इस वीराने में कैसे..? 

स्मृति :- वो मां जी.... हम गंगा घाट जा रहें थे... ओर हमारी गाड़ी खराब हो गई हैं.....। 


ओहह...आप घबराओ मत.... आपकी गाड़ी अभी ठीक करवा देतीं हूँ...। 


दूर खेतों में एक शख्स को जोर से आवाज लगाती हुई बुढ़िया बोली :- टीटू.... ओ टीटू.... जल्दी इधर आ....। 


अमरसिंह इस उम्र में भी उसकी तेज़ आवाज सुनकर थोड़ा आश्चर्य में पड़ गया...। उसके चेहरे पर ना पति को खोने की शिकन थीं... ना बेटे को खोने की... भरा पूरा परिवार होने पर भी जिंदगी अकेले जीने का कोई अफसोस नहीं था...। 
अमरसिंह विचार कर ही रहा था की एक शख्स उसके पास आया ओर कहा :- साहब...आपकी गाड़ी बनवानी हैं...! 


हां... हां...। 

ठीक हैं साहब आप इत्मिनान से बैठिये मैं मैकेनिक को ले आता हूँ...। 
कुछ देर में ही एक मैकेनिक आया ओर उनकी गाड़ी को ठीक करने लगा...। 

जहां अमरसिंह बुढ़िया की बातों पर विचार कर रहा था... वहीं स्मृति बुढ़िया के साथ पक्षी पशुओं के साथ खेलने में व्यस्त थीं..। थोड़ी देर बाद ही मैकेनिक आया ओर बोला :- साहब.... आपकी कार बिल्कुल ठीक हो गई हैं..।


ओहह.... शुक्रिया...। 
कितने पैसे हुए...? 

अरे साहब....आपको जो सही लगे दे दीजिए....। मैं तो ये काकी के बुलाने पर आ गया... नहीं तो मेरी खुद की दुकान हैं...वो पास वाले गाँव में...। 

लेकिन फिर भी... 

साहब.... दो वक्त का खाना हो जाए... परिवार का भरण पोषण हो जाए.... ओर आदमी को क्या चाहिए... आप समझ कर जो भी देंगे.... खुशी खुशी ले लूंगा...। 

अमरसिंह ने उसे मन मुताबिक मेहनताना दिया ओर उनका शुक्रिया अदा किया...। 


अमरसिंह बुढ़िया को भी धन्यवाद कहकर उनके पैसे देकर वहां से कार की ओर चल दिया..। 


कार में बैठकर अमरसिंह ने गाड़ी स्टार्ट की ओर यूटर्न ले ली...। 

अरे... ये आप.... वापस.... पीछे.... हम गंगा घाट नही जा रहे क्या..! स्मृति हैरान होते हुए बोली..। 


जाएंगे... गंगा घाट भी जाएंगे... लेकिन अभी नहीं...। 

तो फिर.. 

अभी हम मसूरी जा रहे हैं... । 

ये सुन.... स्मृति हैरान हो गई..। 
बहुत समय बाद उसने अमरसिंह के चेहरे पर मुस्कान देखी थी..। 

अमरसिंह भी मन ही मन सोच रहा था.... शायद जो कुछ भी मैंने विजय के मुंह से सुना... यहीं नियति का फैसला था... जिससे वक्त रहते मुझे सब कुछ पता चल गया...। इस बुढ़िया से मिलना और इसकी बातें सुनना.... ये सब ऊपरवाले का रचाया खेल हैं...। 

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अपने कल की चिंता किजिए... लेकिन उसके लिए अपने आज को मत खोइये...। जो साथ नहीं हैं... उसका अफसोस करने की बजाय..जो हैं... उसमें खुश रहिये..। ऊपरवाले की हर रजा़ में राजी़ रहिये....। 



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नोट :- ये कहानी सालों पहले मैंने मेरी मम्मी से सुनी थीं.... उसे कुछ अपने शब्द देकर लिखा हैं...। कुछ अनुचित लगे तो क्षमा करें....। 

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7 Comments

Reyaan

07-Feb-2024 08:01 PM

Very nice

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Shnaya

07-Feb-2024 07:43 PM

Nice

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Mohammed urooj khan

06-Feb-2024 01:43 PM

👌🏾👌🏾👌🏾👌🏾

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